Tuesday, 09 September 2025

 
 
 
 
आतंक की राह पर चलते रहने को आमादा पाकिस्तान यही जाहिर कर रहा है कि वह भारत समेत दुनिया के लिए सिरदर्द बना रहेगा ।
सेना प्रमुख जनरल बिपिन रावत का यह कथन पाकिस्तान के आतंकी चरित्र को ही बयान करता है कि बालाकोट में आतंकियों के ठिकाने को फिर से सक्रिय कर दिया गया है। यह वही आतंकी ठिकाना है, जिसे पुलवामा हमले के बाद भारतीय वायुसेना ने हवाई हमले के जरिए ध्वस्त किया था। माना जाता था कि इस हवाई हमले के बाद पाकिस्तान के होश ठिकाने आ जाएंगे, लेकिन अब पता चल रहा है कि ऐसा नहीं हुआ। इसे देखते हुए यह सर्वथा उचित है कि सेना प्रमुख ने बिना किसी लाग लपेट कहा कि अगली बार बालाकोट से भी बड़ी कार्रवाई होगी। उन्होंने यह भी जानकारी दी कि पाकिस्तान से कम से कम पांच सौ आतंकी भारत में घुसने की फिराक में हैं। इसका मतलब है कि पाकिस्तान आसानी से मानने वाला नहीं है। कश्मीर पर उसके गर्जन-तर्जन से यह जाहिर भी हो रहा है। वह इस तरह बौराया हुआ है जैसे जम्मू-कश्मीर पर वही शासन कर रहा हो। कश्मीर पर पाकिस्तान की बौखलाहट यही बताती है कि कोई देश किस तरह दिवास्वप्न से ग्रस्त होकर खुद को बर्बादी के रास्ते पर ले जा सकता है। उसे सिर्फ यही मुगालता नहीं था कि मुस्लिम जगत की ठेकेदारी उसके पास है, बल्कि वह इस सनक से भी ग्रस्त था कि एक दिन कश्मीर उसका होगा। वह इस सनक का शिकार तब है, जब उसकी अर्थव्यवस्था रसातल में है और उसे एक तरह से भीख मांग गुजारा करना पड़ रहा है।
हालांकि पाकिस्तान के आम लोग यह जान-समझ रहे हैं कि विश्वव्यापी बदनामी के कारण दुनिया उस पर ध्यान नहीं दे रही है, लेकिन पाकिस्तानी सत्ता प्रतिष्ठान और खासकर उसकी सेना को शायद इसकी परवाह नहीं। हैरानी इस पर है कि क्रिकेटर से नेता बने इमरान खान सच को स्वीकार करने के बजाय अपनी आतंकपरस्त सेना की कठपुतली बनना पसंद कर रहे हैं। पाकिस्तान एक ओर खुद को आतंक पीड़ित बताता है और दूसरी ओर किस्म-किस्म के आतंकियों को पालने-पोसने का भी काम करता है। उसकी इसी दुष्प्रवृत्ति को पिछले दिनों ह्यूस्टन में भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और साथ ही एक तरह से विश्व समुदाय के समक्ष इस सवाल के जरिए बयान किया कि आखिर 9/11 और 26/11 के आतंकी हमलों के साजिशकर्ता कहां पाए गए? आतंक के रास्ते पर चलते रहने पर आमादा पाकिस्तान यही जाहिर कर रहा है कि वह अभी भारत समेत दुनिया के लिए सिरदर्द बना रहेगा। हालांकि दुनिया पाकिस्तान का रोना-धोना सुनना पसंद नहीं कर रही है, लेकिन उसकी हरकतों को देखते हुए भारत को उससे नए सिरे से निपटने की तैयारी रखनी चाहिए। यह तैयारी निर्णायक ही होनी चाहिए।

 
नेशनल मेडिकल कमीशन बिल पर लोकसभा की मुहर के साथ ही यह उम्मीद बढ़ गई है कि जल्द ही राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग का गठन होगा। इस आयोग के गठन का एक बड़ा उद्देश्य भारत को विश्वस्तरीय चिकित्सा शिक्षा का केंद्र बनाना है। मेडिकल कमीशन बिल को कानूनी स्वरूप दिए जाने का इंतजार इसलिए हो रहा है, क्योंकि ऐसा होने पर ही उस मेडिकल काउंसिल से छुटकारा मिल सकेगा, जिसके बारे में इस नतीजे पर पहुंचा गया था कि वह एक अक्षम और भ्रष्टाचार से ग्रस्त संस्था है।
हालांकि नेशनल मेडिकल कमीशन बिल के कुछ प्रावधानों का विरोध भी हो रहा है, लेकिन ऐसा तो करीब-करीब हर विधेयक के मामले में देखने को मिलता है। इतने बड़े देश में ऐसे किसी विधेयक का निर्माण मुश्किल ही है, जिसके सभी प्रावधानों पर हर कोई सहमत हो सके। देखना है कि सरकार इस मांग पर सहानुभूतिपूर्वक विचार करती है या नहीं कि मेडिकल छात्रों को एक्जिट परीक्षा देने का अवसर एक से अधिक बार मिले? जो भी हो, उचित यही है कि विपक्षी राजनीतिक दल यह समझें कि राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग के गठन का समय आ गया है। इस आयोग के जरिए केवल चिकित्सा शिक्षा की विसंगतियों को ही दूर करने में मदद नहीं मिलेगी, बल्कि चिकित्सकों और खासकर विशेषज्ञ चिकित्सकों की कमी को दूर करने का लक्ष्य भी पूरा किया जा सकेगा। फिलहाल यह एक कठिन लक्ष्य दिख रहा है।
चिकित्सा शिक्षा और शोध में सुधार की पहल एक ऐसे समय हो रही है, जब शिक्षा के अन्य क्षेत्रों में भी सुधार की कवायद चल रही है। नई शिक्षा नीति के मसौदे को इसी सिलसिले में देखा जाना चाहिए। वर्तमान में शिक्षा के हर स्तर पर व्यापक सुधार की आवश्यकता है। इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए यह समय की मांग है कि शिक्षा संबंधी कोई ऐसा राष्ट्रीय आयोग भी बने जो विभिन्न् क्षेत्रों के शिक्षा संस्थानों के तौर-तरीकों और मानकों में एकरूपता लाने का काम कर सके। ऐसा कोई आयोग ही विभिन्न् मंत्रालयों से जुड़े शिक्षा संस्थानों को समान धरातल पर लाने और उनकी गुणवत्ता को एक स्तर प्रदान करने का काम कर सकता है। यह आयोग मानव संसाधन विकास मंत्रालय, कृषि मंत्रालय, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय और स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के शिक्षा संस्थानों में समन्वय बैठाने का भी काम कर सकता है। ध्यान रहे कि आज की जरूरत केवल यही नहीं है कि हमारी चिकित्सा शिक्षा विश्वस्तरीय हो, बल्कि यह भी है कि तकनीक, कृषि, प्रबंधन आदि से जुड़ी शिक्षा का भी स्तर सुधरे। यह जरूरत इसलिए और बढ़ गई है, क्योंकि सरकार इस कोशिश में है कि विदेशी छात्र भी भारत आकर उच्च शिक्षा ग्रहण करें।

ममता को नीति आयोग की रीति-नीति से शिकायत हो, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि वह उसकी बैठकों में शामिल होने से इनकार करें। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने नीति आयोग की आगामी बैठक में शामिल होने से इनकार करके यही साबित किया कि वह अभी भी चुनाव के दौर वाली मानसिकता से मुक्त नहीं हो सकी हैं। शायद उन्हें इसकी परवाह नहीं कि प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाले नीति आयोग की बैठक का बहिष्कार करके वह पश्चिम बंगाल के हितों की ही अनदेखी करेंगी। यह वही ममता बनर्जी हैं, जो एक समय अपने नेतृत्व वाले राजनीतिक मोर्चे का नाम संघीय मोर्चा रख रही थीं, ताकि राज्यों के अधिकारों को प्राथमिकता देती हुई दिख सकें, लेकिन आज वह संघीय ढांचे की भावना के खिलाफ खड़ी होना पसंद कर रही हैं। ऐसा लगता है कि उन्हें जनादेश को स्वीकार करने में मुश्किल हो रही है। वह उन चंद मुख्यमंत्रियों में शामिल थीं, जिन्होंने मोदी सरकार के शपथ ग्रहण समारोह में शामिल होने से इनकार किया। यह भी ध्यान रहे कि वह चुनाव प्रचार के दौरान नरेंद्र मोदी को न केवल प्रधानमंत्री मानने से इनकार कर रही थीं, बल्कि उनसे फोन पर बात करना भी जरूरी नहीं समझ रही थीं। इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि वह कई केंद्रीय योजनाओं को लागू करने से भी इनकार करती रही हैं। इनमें आयुष्मान भारत योजना भी है और देश के पिछड़े जिलों के विकास की योजना भी।
राजनीतिक खुन्न्स में जनकल्याण और विकास की केंद्रीय योजनाओं से अपने राज्य को वंचित रखना सस्ती राजनीति के अलावा और कुछ नहीं। यह एक तरह की जनविरोधी राजनीति भी है। मुश्किल यह है कि ऐसी सस्ती और जनविरोधी राजनीति का परिचय अन्य अनेक दल भी देते रहते हैं। यह किसी से छिपा नहीं कि बीते दिनों द्रमुक नेताओं ने हिंदी थोपे जाने का हल्ला मचाकर किस तरह सस्ती राजनीति का प्रदर्शन किया। हिंदी के नाम पर द्रमुक और कुछ अन्य दलों के नेता किस तरह जनता को गुमराह कर रहे थे, इसका पता इससे चलता है कि तमिलनाडु उन राज्यों में प्रमुख है, जहां हिंदी को पठन-पाठन का हिस्सा बनाया गया है। बहुत दिन नहीं हुए, जब आंध्र प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने सीबीआई को राज्य के मामलों की जांच करने की इजाजत देने से इनकार कर दिया था। आंध्र प्रदेश के बाद पश्चिम बंगाल ऐसा करने वाला दूसरा राज्य बना था। आखिर ऐसे मनमाने फैसले लेने वाले नेता किस अधिकार से संघीय ढांचे को मजबूती देने की जरूरत जता सकते हैं? पता नहीं ममता बनर्जी चंद्रबाबू नायडू के राजनीतिक पराभव से कोई सीख लेंगी या नहीं, लेकिन किसी भी मुख्यमंत्री को यह शोभा नहीं देता कि वह संकीर्ण राजनीतिक हितों को इतनी अहमियत दे कि राज्य के हित पीछे छूटते हुए दिखें। लोकसभा चुनावों के समय राहुल गांधी की तरह नीति आयोग को खत्म करने का वादा कर रहीं ममता बनर्जी को इस आयोग की रीति-नीति से शिकायत हो सकती है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि वह उसकी बैठकों में शामिल होने से इनकार करें। नीति आयोग को निष्प्रभावी संस्था बताते हुए उन्होंने योजना आयोग को बहाल करने की मांग की है। यह तय है कि ऐसी मांग करते समय वह इससे भली तरह परिचित होंगी कि ऐसा नहीं होने जा रहा है।

 
Image result for दिशाहीन कांग्रेसकोई हैरानी की बात नहीं कि राज्यों में भी कांग्रेस के भीतर उठापटक तेज होती दिख रही है। लोकसभा चुनावों के नतीजे आने के बाद जब यह उम्मीद की जा रही थी कि कांग्रेस अपनी रीति-नीति में व्यापक बदलाव लाएगी, तब वह दिशाहीनता से ग्रस्त दिख रही है। किसी को नहीं पता कि आम चुनाव में पार्टी की करारी पराजय के बाद राहुल गांधी ने अध्यक्ष पद छोड़ने की जो पेशकश की थी, उसका क्या हुआ? इस बारे में भी कोई खबर नहीं कि एक और करारी हार पर कोई आत्ममंथन किया जा रहा है या नहीं? चूंकि यह पता नहीं कि कांग्रेस में शीर्ष स्तर पर क्या हो रहा है, इसलिए इस पर हैरानी नहीं कि राज्यों में भी उठापटक तेज होती दिख रही है। तेलंगाना में कांग्रेस के 18 में से 12 विधायक सत्ताधारी तेलंगाना राष्ट्र समिति में शामिल होने को तैयार हैं। पता नहीं कांग्रेस से मुक्त होने को तैयार इन विधायकों की यह इच्छा पूरी होगी या नहीं कि राज्य कांग्रेस का विलय तेलंगाना राष्ट्र समिति में हो जाए, लेकिन अगर वे पार्टी छोड़ देते हैं तो एक और राज्य में कांग्रेस अस्तित्व के संकट से जूझती दिखाई देगी।
कांग्रेस के लिए यह भी शुभ संकेत नहीं कि पंजाब में मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह और उनके बड़बोले मंत्री नवजोत सिंह सिद्धू के बीच तनातनी बढ़ती जा रही है। यदि यह तनातनी और अधिक बढ़ी तो इसका असर कांग्रेस की एकजुटता और साथ ही उसकी छवि पर भी पड़ेगा। पार्टी नेतृत्व को इसकी चिंता करनी चाहिए कि पंजाब में कांग्रेस आपसी कलह का शिकार न होने पाए।
कांग्रेस नेतृत्व को यह समझना होगा कि अगर मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह क्रिकेटर से नेता बने नवजोत सिंह सिद्धू के रुख-रवैए से नाखुश हैं तो इसके लिए उन्हें दोष नहीं दिया जा सकता। नवजोत सिद्धू एक अरसे से यह दिखाने की कोशिश कर रहे हैं कि उन्हें अमरिंदर सिंह की परवाह नहीं है। भले ही नवजोत सिद्धू यह कह रहे हों कि उन्हें हल्के में लिया जा रहा है, लेकिन सच यही है कि वह खुद मुख्यमंत्री को यथोचित महत्व देने को तैयार नहीं दिख रहे हैं। क्या ऐसा इसलिए है, क्योंकि कांग्रेस नेतृत्व उनकी पीठ पर हाथ रखे हुए है?
सच्चाई जो भी हो, इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि पंजाब के साथ-साथ अन्य अनेक राज्यों में भी कांग्रेस गुटबाजी और दिशाहीनता से ग्रस्त है। राजस्थान में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट के बीच सब कुछ सही नहीं दिख रहा है। जैसे यह नहीं पता कि राहुल गांधी पार्टी अध्यक्ष बने रहेंगे या नहीं, वैसे ही इस बारे में भी संशय ही अधिक है कि विभिन्न् राज्यों के पार्टी अध्यक्ष अपने-अपने पद पर बने रहेंगे या नहीं? सबसे खराब बात यह है कि कांग्रेस नेतृत्व और खासकर गांधी परिवार की ओर से ऐसे संकेत दिए जा रहे हैं, जैसे लोकसभा चुनावों में पराजय के लिए उसके अलावा अन्य सब जिम्मेदार हैं। कहीं राज्यों के नेतृत्व पर दोष मढ़ा जा रहा है तो कहीं सहयोगी दलों पर। इसके अतिरिक्त यह भी प्रतीति कराई जा रही है कि भाजपा गलत तौर-तरीके अपनाकर चुनाव जीत गई। इस सबसे तो यही लगता है कि कांग्रेस नेतृत्व हार के मूल कारणों से जानबूझकर मुंह मोड़ रहा है। ऐसा करना मुसीबत मोल लेना ही है।
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